एन आर सी : एक विश्लेषण

       

      "NRC ( National register of citizen)"

       

             

             " भारतीय नागरिकता रजिस्टर "

एन आर सी का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में 31 अगस्त 2019 को एनआरसी की आखिरी लिस्ट जारी हुई, जिसमें 19 लाख लोगों लिस्ट से बाहर हुए।  यहां हम आपको बता दें कि है यह एनआरसी का आखिरी अपडेशन था। यह फाइनल सूची है जिसमें 19 लाख लोग बाहर हुए हैं। 


    इससे पहले जुलाई 2018 में जारी ड्राफ्ट में बाहर हुए लोगों की संख्या 40 लाख थी।  जिनमें से आधे को  एनआरसी सूची में शामिल कर लिया गया है ,उन पर  से विदेशी होने का कलंक मिट गया है।  31 अगस्त 2019 को सूची जारी होती हुई है स्थानीय संगठनों ने विरोध और प्रदर्शन शुरू कर दिए। 


   इससे आशंका जाहिर होती है  की आखरी सूची तो जारी हो गई है  लेकिन कहीं ना कहीं नागरिकता संबंधी विवादों का मूल अभी वही बना हुआ है। अब भी दिमाग में बार-बार सवाल  उठते  हैं कि क्या? वे वास्तव में भारत के नागरिक है या नहीं है ?  क्या वे विदेशी ? , घुसपैठिए या फिर भारतीय नागरिक नहीं है?  


         
(✏  सवाल यह भी है असम इकलौता राज क्यों जहां एनआरसी बनाया जा रहा है? और इसे लेकर विवाद की स्थिति क्यों है?)

          सवाल और भी हैं परंतु एक बात अब स्पष्ट है बाहर हुए 19 लाख लोग अब भारतीय नागरिक नहीं हैं। 


असम NRC को ठीक से समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा :

   

✏ NRC: यदि आसान भाषा में कहें तो वह प्रक्रिया जिससे देश में गैर कानूनी तौर पर रह रहे विदेशी लोगों को खोजा जा सके। अर्थात इसमें केवल भारतीय नागरिकों के नाम दर्ज होते हैं। 

           भारत में आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना के बाद नागरिकों के आंकड़े  एकत्रित करने हेतु एनआरसी बनाया गया था। 

✏ और 1951 मैं ही इसे असम में पहली बार लागू किया गया । 

          ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि ब्रिटिश भारत  मैं असम के चाय बागानों मैं काम करने और खाली पड़ी जमीनों पर खेती करने हेतु बिहार उड़ीसा और बंगाल से बड़े पैमाने पर लोग असम जाते थे । और आजादी के बाद इसे( आवागमन) लेकर असम के स्थानीय लोगों में विरोध था अतः एनआरसी को असम में लागू किया तथा 1951 में असम में रहने वाले लोगों को एनआरसी में शामिल किया गया। 

   

       आजादी के बाद भी बड़े पैमाने पर तब के पूर्वी पाकिस्तान और आज के बांग्लादेश से असम में लोगों का आने का सिलसिला जारी रहा। हालात तब ज्यादा खराब हुए जब पूर्वी पाकिस्तान मे आजादी को लेकर संघर्ष शुरू हुआ और परिस्थितियां हिंसक होने लगी फलस्वरूप वहाँ के हिंदू व मुसलमान दोनों ने भारत का रुख किया अनुमान है कि 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में वहां की सेना ने दमनकारी कार्यवाही शुरू की तो करीब 10 लाख लोगों ने  असम में शरण ली।    

       ( तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था " शरणार्थी चाहे किसी भी धर्म का हो उसे वापस जाना पड़ेगा")

      हालांकि 26 मार्च 1971 को जब  पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र देश बन गया तो बड़ी संख्या में शरणार्थी अपने वतन वापस लौट गए परंतु 1971 के बाद भी बड़े पैमाने पर बांग्लादेशियों का असम में आना जारी रहा ।जिससे जनसंख्या में परिवर्तन हुआ और इसने मूल असम वासियों में भाषाई, सांस्कृतिक,व राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा की ।  

       इस असुरक्षा की भावना से 1978 के आसपास असम में दो संगठन -ऑल इंडिया स्टूडेंट यूनियन( आसु) एवं असम गढ़ संग्राम परिषद की अगुवाई में एक शक्तिशाली आंदोलन का जन्म हुआ । 

            इसी दौरान एक लोकसभा उपचुनाव के दौरान चुनाव अधिकारी ने पाया कि मतदाताओं की संख्या में अचानक बढ़ोतरी हो गई है जब यह खबर लोगों तक पहुंची तो स्थानीय स्तर पर आक्रोश फैल गया। हालांकि केंद्र सरकार ने विरोध को दरकिनार करते हुए सभी लोगों को मतदाता सूची में शामिल कर लिया , इससे आशु और असम संग्राम गण परिषद के नेतृत्व में लोग सड़कों पर उतर आए। 


       तब आंदोलन के नेताओं ने दावा किया था कि 31 से 34% जनसंख्या का हिस्सा बाहरी लोगों का है और  और केंद्र सरकार  के समक्ष मांगे रखी कि:

1) असम की सीमाएं सील करें।
2) बाहर के लोगों की पहचान की जाए और तब तक असम में चुनाव ना कराए जाएं जब तक यह पूर्ण ना हो।
3) 1961 के बाद राज्य में जो लोग आए हैं उन्हें वापस भेजा जाए, चाहे वह बांग्लादेशी बिहारी एवं बंगाली ही क्यों ना हो ।

         1983 केंद्र सरकार ने असम में विधानसभा चुनाव कराने का फैसला किया इसका बहिष्कार आंदोलनकारियों ने किया फिर भी चुनाव हुए लेकिन इस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 3000 लोग मारे गए। चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी हालांकि उसे लोकतांत्रिक वैधता हासिल नहीं थी।

        1979 से 1985 तक राज्य में राजनीति  अस्थिरता रही इस दौरान हिंसक आंदोलन, जातीय हिंसा, प्रदर्शन के बीच राष्ट्रपति शासन भी लगाया गया समझौते के प्रयास भी होते रहे। 

      फलस्वरूप राजीव गांधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच 15 अगस्त 1985 को- "असम समझौता" -हुआ  जिसमें निम्न बातों पर सहमति बनी:

1) 1951 से 1961  के मध्य आए लोगों को पूर्ण नागरिकता। ( मताधिकार भी शामिल)
2) 1961 से 1971 के बीच आए लोगों को नागरिकता। ( परंतु मताधिकार शामिल नहीं)
3) 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए लोगों को उनके मूल देश वापस भेजा जाएगा।

      समझौता हो गया आंदोलन शांत पड़ा चुनाव हुए आंदोलन के नेताओं ने चुनावी दल बनाकर असम में चुनाव जीता परंतु असम समझौते को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।

      नवंबर 1999 में बीजेपी सरकार ने तय किया कि असम समझौते के तहत" एनआरसी 1951" को अपडेट किया जाना चाहिए परंतु बात ठंडे बस्ते में चली गई। 

      मई 2005 में मनमोहन सरकार ने एनआरसी अपडेशन की प्रक्रिया पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू करवाई लेकिन असम में हिंसक गतिविधियां प्रारंभ हो गई इसके बाद यह प्रक्रिया रोक दी गई। और लंबे समय तक इस ओर ध्यान नहीं दिया गया । 

         2013 में एनआरसी अपडेट को लेकर एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका   की सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई करते  हुए 2015 एनआरसी अपडेशन की प्रक्रिया अपनी( सुप्रीम कोर्ट) निगरानी  मैं प्रारंभ कराई और सरकारों को नोटिस जारी किए असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया कि 31 दिसंबर 2017 तक एनआरसी को अपडेट कर दिया जाएगा परंतु बाद में समय सीमा बार-बार   बढ़ाने की मांग की गई। और अब जाकर 31 अगस्त 2019 को एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी किया गया। जिसमें असम में रहने वाले करीब 19 लाख लोग बाहर हो गए हैं।


इन्हें हिरासत केंद्रों में रखा जाएगा अब आगे देखना होगा सरकार क्या कार्यवाही करती है क्या इन्हें बांग्लादेश को वापस भेजा जाएगा और अगर बांग्लादेश की ने स्वीकार करने से मना करता है तब क्या होगा? 

     फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को कोई भी सख्ती बरतने से मना किया है और सरकारों ने भी इन लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने हेतु  न्यायाधिकरण गठित किए हैं जिनके समक्ष बाहर हुए लोग अपनी नागरिकता साबित कर पाएंगे। परंतु यहां सवाल यह है कि उनका क्या ?जो अत्यंत निर्धन है,अशिक्षित हैं, अजागरूक है  और  वास्तव मे भारत के नागरिक हैं परंतु दस्तावेजों के अभाव में नागरिकता साबित करने में असमर्थ हैं? सवाल जायज हैं... 

अंतिम सूची तो जारी हो गई है इसके बावजूद एनआरसी बनने की प्रक्रिया पर बार-बार सवालिया निशान खड़े होते हैं और कहा जाता है कि यह प्रक्रिया व्यवहारिक नहीं है इससे घुसपैठियों की पहचान करना असंभव है। और यह इससे प्रमाणित होता है कि पहले जारी किए गए ड्राफ्ट में कई सदस्य ऐसे थे जिन्हें सूची में स्थान नहीं मिला परंतु उनके परिवार के अन्य सदस्य सूची में शामिल थे और आम लोगो तक तो ठीक था परंतु यह भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति के परिवार तक के साथ भी यह हुआ। जाहिर है की एनआरसी अपडेशन में किस तरह की प्रक्रिया अपनाई जा रही होगी। 


       जो बाहर हुए हैं  उनके संपत्ति के अधिकार, मताधिकार ,नागरिक अधिकार और वह सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य भी घोषित हो गए हैं। साथ ही इन्हें जर्जर कैंपों में  अमानवीय स्थितियों मैं रखा जाएगा। इस बात की उम्मीद भी कम ही है कि बांग्लादेश इन्हें स्वीकार करेगा। 

      वास्तव में एनआरसी का मूल उद्देश्य बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों की पहचान कर  उन्हें  अपने मूल देश वापस भेजना था। परंतु प्रारंभ से ही यह मुद्दा राजनीतिक पार्टियों द्वारा हिंदू मुस्लिम तुष्टीकरण के आधार पर वोट बैंक के रूप में  भुनाया जाता रहा है फिर चाहे वह कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण या फिर बीजेपी जैसी हिंदुत्ववादी पार्टियों का हिंदू तुष्टीकरण हो , इस मुद्दे को राष्ट्रवाद के नाम पर भी वोट बैंक बनाने हेतु इस्तेमाल किया जाता रहा है।  दुर्भाग्यपूर्ण है इसी तुष्टीकरण की क्रम में उच्च पदों पर बैठे राजनैतिक व्यक्ति एनआरसी को लेकर गृह युद्ध ,रक्तचाप  और बंदूक से भून देना चाहिए जैसे भड़काऊ वक्तव्य देते हैं। 

      सवाल है: क्या? हम उन लोगों को बाहर कर दें जो पिछले 50 सालों से भारत में रह रहे हो और कभी इस आशा के साथ भारत आए थे कि एक बेहतर जीवन जी पाएंगे ।, क्या ?हम उन्हें कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दे सकते जिससे उन्हें मतदाता नहीं तो कम से कम  मानवीय और जीवन जीने योग्य अधिकार तो प्राप्त हो ही सकें। 


      अंत  मैं अगर  मुझसे कोई समाधान पूछा जाए तो मैं यही कहूंगा की राष्ट्रवाद संप्रभुता और असम के लोगों को संरक्षण देने के नाम पर ऐसी कार्यवाही नहीं करनी चाहिए जो मनमानी, बांटने वाली और अमल में लाना इतनी कठिन है कि समाधान की जगह समस्याएं निर्मित कर देगी। 



                                                          -   (मोनू गुप्ता)


Comments

  1. जीवन निर्वाह के अधिकार देकर तथाकथित व्यक्तियों को उन्हें देश में रखना उचित है, अगर ऐसा नहीं किया गया तो इसके भावी परिणाम असम वासियों के लिए नहीं, हम सभी के लिए भी घातक हो सकते हैं।
    इन घातक परिणामों का एक उदाहरण - वुभिक्षितः किम् न करोति पापम्, अर्थात्
    भूँखा क्या पाप नहीं करता।

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    1. नि:संदेह भूख इंसान से कुछ भी करवा सकती है.. इसलिये जरूरत है सरकारों मे बैठे लोग इस समस्या पर राजनिति करना छोड़कर.... कोई उचित समाधन निकलने पर ध्यान दें..।

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